Devidhura Mela: श्रावण मास की पूर्णिमा का पावन और पवित्र दिन समूचे भारतवर्ष में रक्षाबंधन के रूप में पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस दिन जहां बहनें अपने भाई के प्रति प्रेम और स्नेह के रुप में राखी बांधती हैं, तो वहीं भाई भी अपनी बहनों की रक्षा का वचन लेते हैं। भाई बहन के इस अटूट प्रेम की कहानियां हमारे पुराणों में भी मिलती हैं। जहां एक ओर इस दिन को लेकर इतना प्रेम होता हैं, तो वहीं दूसरी ओर देवभूमि उत्तराखंड के चंपावत जिले में एक स्थान ऐसा भी है। जहाँ इस दिन सभी बहनें अपने अपने भाइयों को युद्ध के लिये तैयार कर, अस्त्र के रूप में उपयोग होने वाले पत्थरों से सुसज्जित कर विदा करती हैं। यह स्थान चंपावत जिला मुख्यालय से करीब 60 किमी दूर, अल्मोड़ – लोहाघाट मार्ग पर स्थित ‘देवीधुरा’ (Devidhura) है।
समुद्रतल से करीब 2500 मीटर की ऊंचाई पर विशाल शिलाखंडों के मध्य प्राकृतिक रूप से बनी गुफा में स्थित है मां ‘बाराही देवी’ (Maa Barahi Devi)। प्रत्येक वर्ष रक्षाबंधन के दिन मां बाराही धाम में बग्वाल मेला लगता है, जिसे ‘पत्थर युद्द’ या ‘पाषाण युद्ध’ भी कहते है। ’’बग्वाल’’ एक तरह का पाषाण युद्ध है। ऐसी मान्यता है कि इससे देवी खुश होती हैं। पत्थरों से खेले जाने वाले युद्ध के दौरान जय मां बाराही का जयकारा लगता है और लाखों की संख्या में लोग इस युद्ध को देखने आते हैं। इस युद्ध में हिस्सा लेने वालों को बग्वाली कहा जाता है, जो सुंदर साफे में सजकर आते हैं। मान्यता है कि, बग्वाल खेलने वाला व्यक्ति यदि पूर्णरूप से शुद्ध व पवित्रता रखता है तो उसे पत्थरों की चोट नहीं लगती है।
Devidhura Mela History: देवीधुरा का इतिहास
ऐसा माना जाता है कि, देवीधुरा में बग्वाल (Devidhura Bagwal Mela) का यह खेल पौराणिक काल से और कुछ लोग इसे कत्यूर शासन से चले आने की बात मानते हैं, जबकि कुछ अन्य लोग इसे काली कुमाऊँ से जोड़कर देखते हैं। हालांकि यह मेला कब से चला आ रहा है इस बात के कोई सटीक साक्ष्य नहीं हैं।
प्रचलित मान्यताओं के अनुसार, पौराणिक काल में चार खामों (लमगड़िया, वालिग, गहड़वाल और चम्याल) के लोगों द्वारा अपनी आराध्या वाराही देवी को मनाने (खुश) के लिये नर बलि देने की प्रथा थी। मां वाराही को प्रसन्न करने के लिये चारों खामों के लोगों में से प्रति वर्ष एक नर बलि दी जाती थी। बताया जाता है कि, एक साल चमियाल खाम की एक वृद्धा के परिवार की नर बलि की बारी थी। जबकि वृद्धा के परिवार में केवल वृद्ध महिला और उसका पुत्र ही था। महिला ने अपने पुत्र की रक्षा के लिये माँ वाराही की स्तुति की। माँ वाराही ने वृद्धा को दर्शन दिये और मंदिर परिसर में चार खामों के बीच बग्वाल खेलने को कहा, तब से बग्वाल की प्रथा शुरू हुई। आज भी इस मेले के दौरान काफी लोगों को चोटें लगती हैं, लेकिन किसी भी तरह की कोई चिल्लाने की आवाज नहीं सुनाई देती है। कहा जाता है कि, जब एक व्यक्ति के बराबर खून बह जाता है तो प्रधान पुजारी शंख बजाकर इस बग्वाल की समाप्ति की घोषणा करता है, जिसके बाद सभी लोग एक दूसरे के गले मिलते हैं और एक दूसरे को बग्वाल मेले की बधाई देते हैं।
उत्तराखंड में अधिकतर मेले देवी देवताओं के सम्मान में आयोजित किये जाते है, तो कुछ पौराणिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक महत्त्व रखते हैं। देवभूमि उत्तराखंड में सैकड़ो मेलों का आयोजन किया जाता है, जिसमें लोक जीवन, लोक नृत्य, गीत और परंपराओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाती है। हरे भरे गढ़वाल और रंगबिरंगे कुमाऊ के मेलों में उत्तराखंड का सांस्कृतिक स्वरूप निखरता ह। धर्म, संस्कृति और कला के व्यापक सामजस्य के कारण उत्तराखंड में मनाए जाने वाले त्योहार और मेलों की प्रकृति बहुत ही कलात्मक होती है, बता दें यहाँ मेलों को ‘कौथिग’ भी कहा जाता है।
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